Daily Geeta Shlok !! Motivation !! Hindi Lines

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धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाक्ष्चैव किमकुर्वत संजय ।।१।।

धृतराष्ट्र बोले-
हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया?



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सञ्जय उवाच

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।२।।

इसपर सञ्जय बोले-
उस समय राजा दुर्योधनने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेनाको देखकर और द्रोणाचार्यके पास जाकर (यह) वचन कहा।

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अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥ ३३॥

अर्जुन बोले—
हे मधुसूदन! आपने समतापूर्वक जो यह योग कहा है, (मनकी) चंचलताके कारण  मैं इस योगकी स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ।

Arjuna said: Krsna, owing to the restlessness of mind I do not perceive the stability of this Yoga in the form of equanimity, which You have just spoken of. (6:33)


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श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥ ३५॥

श्रीभगवान् बोले— हे महाबाहो! यह मन बड़ा चंचल है (और) इसका निग्रह  करना भी बड़ा कठिन है— यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन! अभ्यास और वैराग्यके द्वारा (इसका) निग्रह किया जाता है।

Sri Bhagavan said: The mind is restless no doubt, and difficult to curb, Arjuna; but it can be brought under control by repeated practice (of meditation) and by the exercise of dispassion, O son of Kunti. (6:35)


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अर्जुन उवाच

अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ ३७॥

अर्जुन बोले— हे कृष्ण! जिसकी साधनमें श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, (वह अन्त समयमें अगर) योगसे विचलितमना हो जाय (तो) (वह) योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको चला जाता है?

Arjuna said: Krsna, what becomes of the aspirant who, though endowed with faith, has not been able to subdue his passions, and whose mind is, therefore, diverted from Yoga at the time of death, and who thus fails to reach perfection inYoga (God-realization)?

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श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥ ४०॥

श्रीभगवान् बोले—
 हे पृथानन्दन! उसका न तो इस लोकमें (और) न परलोकमें ही विनाश होता है; क्योंकि हे प्यारे! कल्याणकारी काम करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको नहीं जाता।

Sri Bhagavan said: Dear Arjuna, there is no full for him either here or hereafter. For O my beloved, none who strives for self-redemption (i.e., God-realization) ever meets with evil destiny.

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कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि॥ ३८॥

हे महाबाहो! संसारके आश्रयसे रहित (और) परमात्मप्राप्तिके मार्गमें मोहित अर्थात् विचलित (इस तरह) दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?

Krsna, swerved from the path leading toGod-realization and without anything to stand upon, is he not lost like the scattered cloud, deprived of both God-realization and heavenly enjoyment? 

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अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।९।।

तथा और भी मेरे लिये जीवनकी आशा त्याग देनेवाले बहुत-से शूर-वीर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित (और) सब-के-सब युद्धमें चतुर हैँ।

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अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।१०।।

और भीष्मपितामहद्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकारसे अजेय है और भीमद्वारा रक्षित इन लोगोंकी यह सेना जितनेमें सुगम है।

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तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ २३॥

जो दुःखरूप संसारके संयोगसे  रहित है तथा जिसका नाम योग है; उसको जानना चाहिये। वह योग न उकताये हुए अर्थात् धैर्य और उत्साहयुक्त चित्तसे निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।

That state, called Yoga, which is free from the contact of sorrow (in the form of transmigration), should be known. Nay, this Yoga should be resolutely practiced with an unwearied mind.

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सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषत:।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्तत:॥ २४॥

संकल्प से उत्पन्न होने वाली संपूर्ण कामनाओं को निःशेषरूप से त्यागकर और मनके द्वारा इंद्रियोंके समुदाय को सभी औरसे भलीभांति रोककर -

Completely renouncing all desires arising fromSankalpas (thoughts of the world), and fully restraining all the senses from all sides by the mind;

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शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥ २५॥

क्रम क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिंतन न करें।

He should through gradual practice, attain tranquillity; and fixing the mind on God through reason controlled by steadfastness, he should not think of anything else.

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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥ २६॥

यह स्थिर न रहने वाला और चञ्चल मन जिस जिस शब्दादि विषयके निमित्तसे संसार मे विचरता है, उस उस विशय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार पर्मात्मामें ही निरुद्ध करे।

Drawing back the restless and fidgety mind from all those objects after which it runs, he should repeatedly fix it on God.

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प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥ २७॥

जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है (तथा) जिसका मन सर्वथा शान्त (निर्मल) हो गया है, (ऐसे) इस ब्रह्मरूप बने हुए योगीको निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है।

For, to the Yogi whose mind is perfectly serene, who is sinless, whose passion is subdued, and who is identified with Brahma, the embodiment of Truth, Knowledge, and Bliss, supreme happiness comes as a matter of course.

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युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥ २८॥

इस प्रकार अपने-आपको सदा (परमात्मामें) लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखका अनुभव कर लेता है।

The sinless Yogi, thus uniting his Self constantly with God, easily enjoys the eternal Bliss of oneness with Brahma.

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सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥ २९॥

सब जगह अपने स्वरूपको देखनेवाला और ध्यानयोगसे युक्त अन्त:करणवाला (सांख्ययोगी) अपने स्वरूपको सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित देखता है (और) सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वरूपमें (देखता है)।

The Yogi who is united in identity with the all-pervading, infinite consciousness, whose vision everywhere is even, beholds the Self-existing in all beings and all beings as assumed in the Self.

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यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ ३०॥

जो (भक्त) सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

He who sees Me (the Universal Self) present in all beings, and all beings existing within Me, he is never lost to me, nor am I ever lost to him.

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सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥ ३१॥

(मुझमें) एकीभावसे स्थित हुआ जो भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझमें (ही) बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह नित्य-निरन्तर मुझमें ही स्थित है।

The Yogi who is established in union with Me, and worships Me as residing in all beings as their very Self,though engaged in all forms of activities, dwells in Me. 

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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥ ३२॥

हे अर्जुन! जो (भक्त) अपने शरीरकी उपमासे सब जगह (मुझे) समान देखता है और सुख अथवा दु:खको (भी समान देखता है), वह परम योगी माना गया है।

Arjuna, he, who looks on all as one, on the analogy of his own self, and looks upon the joy and sorrow of all equally -such a Yogi is deemed to be the highest of all.

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चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥ ३४॥

कारण कि हे कृष्ण! मन (बड़ा ही) चंचल, प्रमथनशील, दृढ़ (जिद्दी) (और) बलवान् है। उसको रोकना मैं (आकाशमें स्थित) वायुकी तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।

For, Krsna, the mind is very unsteady, turbulent, tenacious and powerful; therefore, I consider it as difficult to control as the wind.

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असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:॥ ३६॥

जिसका मन पूरा वशमें नहीं है, उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करनेवाले (तथा) वशमें किये हुए मनवाले साधकको (योग) प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है।

Yoga is difficult of achievement by one whose mind is not subdued by him; however, who has the mind under control, and is ceaselessly striving, it can be easily attained through practice. Such is My conviction. (6:36)

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एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषत:।
त्वदन्य: संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥ ३९॥

हे कृष्ण! मेरे इस सन्देहका सर्वथा छेदन करनेके लिये (आप ही)योग्य हैं; क्योंकि इस संशयका छेदन करनेवाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।



Krsna, only You are capable to remove this doubt of mine completely; for none other than you can dispel this doubt.

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